मंजिले दिलकी बहुत फिरभी निशाँ बना गया कोई ,
बिखरी वो टूटकर खुदको परोया माला में सजा गया कोई ,
घर का दर खुला रखते , बिछड़ ने के भी तरीके होते है
हैरत है अक्सर कहते है मेरे ,मगर दास्ताँ जला गया कोई ,
वो मौसम , गुलाबो की खुशबू हवाओं में बिखर जाएगी ,
याद तो होगा तुझे मगर मुझे अजाबों में रुला गया कोई ,
सुकून कहीं इक था की प्यास होगी समंदर रूह की तरह ,
क्यों मुझे तिश्नगी दी , बददुआ में गिरा गया कोई ,
एसी आग रहगुजर में बरसी सारे मंजर झुलस गए
भूला घर ओरों ने रास्ता दिखा के मेरी दांस्तां सुना गया कोई ,
मुकुल दवे "चातक "
अजाबों-एतनाऐ;दुःख //तिश्नगी-प्यास //झुलस-દાઝવું
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