29 December 2015

मेरी कत्ल करने से पहले मुझे छलाये रखना ,मुकुल दवे "चातक"


मेरी    कत्ल    करने    से    पहले    मुझे   छलाये   रखना ,
इश्क  ने   बेजबान  बनाया  है   तुम   इसे  बनाये   रखना ,

दिखाती  हो  अदा  कातिल  हमें , तीरे -नजर  चलने  देना,
जब तक तक तलवार म्यान में है मोती को  पिरोये रखना,

मेरी  राह  को  दीवार  बनाने उठाके  पथ्थर  वो  ले    गया ,
आईना   बनाया   वो   पथ्थर   को   चहेरा  सजाये  रखना,

कुछ   न   कुछ   मेरे  दरमियाँ  बाकी   तो  रह  गया  होगा ,
मेरे   साथ   बंधे    एक   धागे  को बदन  पे  लगाये  रखना,

आँख  से   गिरा  आँसू   तू   ने  अपनी  आँख  पे  ले   लिया ,
आँसूओ से धुली ख़ुशी की तरह रिश्ते को गुनगुनाये रखना,

मुकुल दवे "चातक"

26 December 2015

दिल मेरा दीदार इस सलीके से सादगी देखते है ,मुकुल दवे "चातक"


दिल  मेरा   दीदार  इस  सलीके  से सादगी  देखते   है ,
चेहरा    नजर  आए  आँखों  की  शर्मिन्दगी  देखते   है

में    हूँ     किनारा    के    इस  पार  तु खड़ी  है उस पार ,
दोनों   साथ ,डूबे  और  जिस्मकी   तिश्नगी  देखते  है

मुझे    मेरी    जिन्दगी    कहाँ   ले   के   पहुँच  गई   है ,
लोगों   की   जबानी  और  हमारी  अनसुनी  देखते   है ,

वो   चारागर   भी   है   और   साथ  खंजर भी  रखता है ,
मेरा मसअला अहले महोब्बत का है दीवानगी देखते है ,

दिल   की  बात  इस  तरह  जबाँ  से  क्या  निकल  गई ,
मेरी  मुहब्बत खुद  को  बेजार कर के  बंदगी  देखते  है ,

मुकुल दवे "चातक"

दीदार-दर्शन //जिस्मकी तिश्नगी-बदन की प्यास ,
चारागर-उपचारक

23 December 2015

दिलसे वो बोलता है दिलों के कानमें ताब होते है ,मुकुल द्वे :"चातक "


दिलसे  वो  बोलता  है  दिलों के  कानमें ताब होते  है ,
आँखों  से बात  करता  है  रुखसार  पे नकाब होते  है ,

हवा  रुख  बदलती है फिरभी परिंदा उड़ानों पे होते है
नसीहत  यह  है बेजबानों  के पर में  मकाम  होते  है ,

सरापा तू है बुजा बुजासा फिरभी दिलमें तपिश क्यों ,
जब  बुजती  नहीं  प्यास  सराबों  की, अजाब होते है ,

मंदिर  मजार  तक  का सफरमे  युँ  कुछ  भी  न  था ,
कहनेको  चले  थे  मेरे  साथ  शहरमें  बेज़बाँ  होते है ,

जिक्र किया था उनका बातों बातों में युँ ही मौसम से ,
मुझे  क्या  पता  इश्क को आजमाने से हबाब होते है ,

मुकुल द्वे :"चातक "

ताब-तेज //अजाब-दुःख //तपिश-जलन //पर-पंख
हबाब-बुलबुला //सरापा-सर से पैर तक//
सराबों-मृगतृष्णा

18 December 2015


तुम  इतना  करीब भी  ना आओ ,सियासत का  भय  रहेता है ,
इतना    भी    दूर    ना   जाओ ,   बगावत  का  भय  रहेता  है ,

दिलको   मन्दिर   बनाके   , मसरूफ   रहे   थे  आप  के  लिए ,
बूत  जमा  देवताओ  का   था  ,   क़यामत का  भय रहेता   है ,

खूद    अपना    अक्स    बनूँ ,   हमसफ़र   आसाँ  नही   होता ,
शीशा  वोही  है  तस्वीर  बदलने से , हक़ीक़त का भय रहेता है ,

बढ़ता    जा   रहा    है    शहर  में   शोर  , शनासा   कोई   नहीं ,
सराबों  की  तिश्नगी   दिलोमेँ   है ,इशरत  का  भय   रहेता  है ,

जिन्दगी  में  एक  इन्सान की  मुलाकात ही गनीमत होती  है ,
कलकी किसे खबर ,थोड़ा साथ चलो रुखसत का भय रहेता  है ,

मुकुल द्वे "चातक"

सियासत-राजकारण//अक्स-प्रतिबिंब //शनासा-परिचित ,
इशरत-आनंद।सुख //सराबों-मृगतृष्णा//तिश्नगी-प्यास

14 December 2015

हम तुजे कायम किताब की तरह पढ़ा करते है ,मुकुल द्वे "चातक"

हम   तुजे   कायम   किताब  की   तरह  पढ़ा  करते है ,
सुन हमारी  बंदगी में  निगाह -ए-करम दुआ करते  है ,

कभी   लम्हों के  आईने  में  अक्स खुद का  देखता  है ,
उसका  अन्दाजे- बयाँ  अपने आप को गिला करते  है ,

अंजुमन  में  आँख   चुराता   है   वो   अपनी   नजरसे ,
गिले  शिकवे  हुए  फिरभी  खलिश  है  पर्दा  करते   है ,

तेरी  याद  है या  तसव्वुर  यह  तमाशा  आँखों का   है ,
जब   होशमें   आते   है   मंजर   हमें  रुला    करते   है ,

अदा उन जुल्फों की बनाते , बिगाड़ते और सँवारते  है ,
कहीं पे वफ़ा,दोस्ती,ख़ुलूस के सिलसिले बयाँ करते  है ,

मुकुल द्वे "चातक"

निगाह -ए-करम-कृपा दृष्टि//अक्स-प्रतिबिंब//
अंजुमन-सभा//तसव्वुर-कल्पना//खलिश-दर्द //
मंजर-दृश्य

11 December 2015

अपने घर में रहते हो अजनबी की तरह तुम हो कौन ,मुकुल द्वे "चातक"


अपने   घर   में   रहते   हो   अजनबी की   तरह  तुम  हो कौन ,
हारा  किससे  बहार -अन्दर के  आदमी की तरह तुम  हो कौन ,

पहन    रखा    है   मुखौटा    इसके   पीछे   क्या  है  पूछता  हूँ ,
मीरा ,  राधा के    ग्वाला की   बंसरी की   तरह  तुम  हो  कौन ,

मै    ने    अपनी    तनहाई यों   में   उसको  छुपा के  रखा  था ,
मुझे  सोचा  उतारा  है जहन में तिश्नगीकी तरह तुम हो कौन ,

जुकता  रहता  हूँ  यह समझ के कोई भी आईना शनासा होगा ,
मगर तुमने सलीके से मुझे रखा डायरी की तरह तुम हो कौन ,

मेरे   दिलमें   चाह   जगी   है  आँखों  की  तरह  पंख  खोल  दूँ ,
और  गोदमें  सर  रखु सजदा की बंदगी की तरह तुम हो कौन ,

मुकुल द्वे "चातक"

तिश्नगी-प्यास //शनासा-पहचान ने वाला

7 December 2015

दिल धड़कता है तो साँसो में महकती धड़कन तेरी,मुकुल द्वे "चातक"


दिल    धड़कता   है    तो   साँसो   में  महकती  धड़कन   तेरी,
फलक पर  आ , चाँद खुद  सितारों  से  बातें  करे साजन  तेरी ,

तुसव्वुर    में    घिरे    रहते     हो    निगहबान    की     तरहा ,
तेरी    जुल्फे ,   कातिल    आँखे    बनी    अब    दुल्हन   तेरी ,

आज    मुझे    सजाले   सेंथी    में  तू   एक  दूल्हा  की  तरहा ,
तु   है   मेरा   नसीब ,  बरसों  से  बनी   बैठी ये  विरहन   तेरी ,

मैं   तो   तेरा  अहसास   हूँ ,  हाथ   पकड़  जमाने  की  भीड़में ,
खो    सकता    हूँ    कारवाँ   में ,   भूल  जा   ये   अनबन  तेरी ,

हवाओं  का  रुख  पलट  ले  ता  मिलती   तू   मुझसे   खुलकर ,
जिस्म के जख्मों  मसीहा बना ,मिटादि लकीरों ने उल्जन तेरी,

मुकुल द्वे "चातक"

5 December 2015

कोई धागेने साँस को पिरोया नहीं ,मुकुल दवे "चातक"


कोई     धागेने     साँस   को    पिरोया    नहीं ,
बदन    और    रूह  का   रिश्ता   पाया    नहीं ,

जागता  नहीं  नीँद  को  किस्तों में  बेचता  है ,
बदन   धो   धो   के  मनका  मैल  धोया  नहीं ,

जिन्दगी कम हो  दर्जा फरिश्तो से बुलन्द था ,
एक   भी    सजदा   खुदासे    छलाया     नहीं ,

रिश्ते के  दोरमें एक धागा साँस और आसका ,
टूटने   से  पास- दूर , किसीने  निभाया   नहीं ,

वो पैग़म्बर, अवतार,देवता बनने निकला था ,
क्या क्या होकर लौटा ,"मैं "को मिटाया  नहीं ,

मुकुल दवे "चातक"

2 December 2015

रोशनी का न धुऍ का पता नहीं, जलाया कुछ और है ,मुकुल द्वे "चातक "


रोशनी   का  न  धुऍ  का  पता  नहीं, जलाया कुछ और  है ,
चिराग हों जब   दिलमें  फिर   बुजाया   कुछ    और    है ,

ऊँचे    महलसे    उसने  झोंपड़ी    का    कद  देख   लिया ,
हाथों की लकीरों ने जज्बात खरीद के जुटाया कुछ और है ,

मेरी    आँखों  में    ख़ामोशी   से    तुम    ढूँढते   हो   क्या ,
जी    भर के  मेरे   अश्कोमें,    छिपाया   कुछ   और     है ,

जिन्दगी  की   आगोश  में   कोई   नहीं   मिलता   होशमें ,
पाले   हुए   सारे   भरम   बसाके   दिखाया   कुछ  और  है ,

मिट्टी  का  खिलौना  बना  कर  कलाकार ने    तलाशा  है ,
तोडा  कई  बार उसने  फिर  बनाके  मिटाया कुछ और  है ,

मुकुल द्वे "चातक "