28 May 2015

सफीना समन्दरमें नहीं डूबा किनारा न देख ,मुकुल दवे "चातक "


सफीना    समन्दरमें   डूबा    नहीं    किनारा    न    देख ,
जाके  सहरामें   डूबा   देख  तू , खुदको  बेसहारा न  देख,

यह    यकीनन   फितरत   है   रातकी   सूरज    लानेकी ,
सुबहकी    रोशनी    देख   तू ,  अँधेरा   दुबारा   न   देख ,

हर  नगर  भीड़  लगी  है  मरघट, मजार  और  बजारोमे ,
सिर्फ प्यास कम करके देख तू ,प्यासका फ़साना न देख ,

हर   राह्पे   हर   मोड़   पर   सवाल   बदलते   हुऐ   देखे ,
जवाबोकी   करवट  देख  तू ,  मोड़  पे  ठिकाना  न  देख ,

आग   उठी   है   कहाँसे   वो   तेरी   बसकी   बात    नहीं ,
गंगा  निकाली  जाऐ  देख  तू , धुआँका  आस्मां  न  देख ,

मुकुल दवे "चातक "
सफीना -नाव /फितरत -स्वभाव


24 May 2015

हर मोड़ पर अजनबी शख्स है ,इन्सान का क्या होगा ,मुकुल दवे "चातक"


हर मोड़ पर अजनबी  शख्स है ,इन्सान  का  क्या  होगा ,
वो   अपने  थे  जो  अन्जान बने ,एतबार का क्या  होगा ,

चंद    लम्होंके   लिए   शाखसे    पंछी    उडा    था    ही ! ,
हिस्सेमें  पेड़का वजूद रहा नहीं , मक़ाम  का  क्या होगा ,

अश्क    सिमटके   चहेरेकी   मुस्कानमें    ढल   रहे    हैं ,
जैसे शबनम हो  रोशन गुलपे , माह्ताब का  क्या  होगा ,

सुलगती   हर   शिकवा   खामोश   बन   के  रह  गई  हैं ,
जिगरमें  उभर  गई  खलिशें , अन्जाम  का  क्या  होगा ,

शम्माके   साथ   परिन्देके   सिलसिले   यूँ    ही  चलते ,
शम्मा   जलके   हुई   है  शोला , इजहार का  क्या होगा ,

मुकुल दवे "चातक"
 माह्ताब-चांद

19 May 2015

बेइतिन्हा उनकी महोब्बतममें डूबकर रह गया ,मुकुल दवे "चातक "


बेइतिन्हा   उनकी  महोब्बतमें  डूबकर  रह   गया ,
वक्तके  भँवरके  हाथोंमें  उनका  दामन  रह  गया ,

क्या   मायनेथे   रिश्तोके  आँखोमे  मै   रहता  था ,
वक्तकी   फितरतमें   बहकर   काजल   रह   गया ,

जख्म  उभरा ऐसाकी  उनकी  गली  तक  आ  गए ,
मसीहा लोग बने इन्तिहा का धुआँ बढ़कर रह गया ,

वक्त  ठहरा  नहीँ  किसीके  इन्तजारके  मोड़   पर ,
हर  मोड़पे  इश्क  दिवानगीमें आके बेबस रह गया ,

इश्ककी खुशबुका एहसास थोड़ा जाया कर दीजिये ,
इबादतसे  गुजरे  मेरे  घरसे उनका असर  रह गया ,

मुकुल दवे "चातक "
इन्तिहा-पराकाष्ठा // फितरत-स्वभाव





5 May 2015

आईना आदमीका अक्स देखकर बदलासा क्यों है ,मुकुल दवे "चातक"


आईना  आदमीका अकस   देखकर  बदलासा  क्यों  है ,
आदमी आदमी  के  साथ  है  फिरभी तन्हासा  क्यों  है ,

जिक्र  उनका  निकला  फिर  छाई  उदासी  महेफिलमें ,
अर्सा हुआ जख्म भरे , निशान  दर्दका जरासा  क्यों  है ,

डूबकर आँखों में  कागजकी कस्तीमें सफर कर  रहे  है ,
झील  जैसी  आँखोंमें   पानी  ठहरा  ठहरासा   क्यों   है ,

अधूरा अफ़साना  है  मगर  मायूस  भी  करती  नहीं  है ,
फिरभी चेहरे पे बिखरी लट के पीछे हैरॉ हैरॉसा क्यों  है ,

दुनियासे  क्या  शिकायतें , गिला  लोगोसे    क्या  करे ,
करनी   है   तुम्हें   ऊँची    दीवारे   दरवाजासा  क्यों  है ,

मुकुल दवे "चातक" अकस-प्रतिबिंब