सारी निगाहों से दूर एक दुनिया बसाई थी ,
ना मेरी , ना तुम्हारी थी ,सिर्फ ख्वाबों में सजाई थी ,
में कभी सोचता हूँ की मुझे तेरी तलाश क्यों है ,
घूमता रहा मगर तुझे माँगना खैरात में मनाई थी ,
कहीं दो राहे पे जिंदगी है ,न जुस्तजू ,न कोई आरजू ,
ये शख्स मर चूका है फिरभी लाश क्यों जगाई थी ,
ये खेल सचमुच क्या राजा-वजीर-फौज प्यादा का है ,
मोहरा इसका चलता है जो चाल दौलत से चलाई थी ,
हम सचमुच जो जिंदगी ढूँढ़ते है अब कहीं भी नहीं है ,
अभी गहरा सुकून है की तुझे ख्वाबों में बसाई थी
मुकुल द्वे "चातक'
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