29 November 2015

यह कैसा दौर है उनके दिल में अब वो तल्खी नहीँ है ,मुकुल द्वे "चातक"


यह  कैसा  दौर  है  उनके  दिल में  अब  वो  तल्खी  नहीँ  है ,
रिश्ता   पुराना  है  पहेले   जैसी  वो  बात  आज भी  नहीँ  है  ,

साकी   तेरे   मयक़दा  में  तुम   जिसे  मयकशी  कहते   हो ,
सागर   जैसी  उनकी   निगाह   आगे  वो  तिश्नगी  नहीँ  है ,

ख्वाब जागती आँखों को दिखाने वाला जिस तरह मिलते है ,
पहले  कभी  मुहब्बत  की  थी  वो  आज  दिल्ल्गी  नहीँ   है  ,

मेरी    किस्मत  में    जीत  भी   हूबहू   हार  की  तरह   हुई ,
मगर  रात  दिन, शामो  सहर, हर  धडी  अजनबी   नहीँ  है ,

हौसला  इतना  है  की  तु   कहे   या  न  कहे मर्जी  है   तेरी ,
एक   हकीकत   बयाँ   है   पहेले  जैसी  शर्मिन्दगी  नहीँ  है ,

आज   मिट   रहा   हूँ  उसी  तरह,जिस तरह मिटा  रही थी,
सिलसिला अजीब है वो तमन्ना,मुराद की जिन्दगी नहीँ है ,

हम   खुद को   रुसवा  उनकी   मुहब्बत से  नही  कर  पाए ,
वार   करते   रहे   वो   फिरभी  उनकी  बंदगी थमी  नहीँ  है ,

मुकुल द्वे "चातक"

तल्खी-कड़वाहट//मयकशी-शराब पीना//तिश्नगी-प्यास ,

 

27 November 2015

खिलते है उल्फत में तेरे रुखसार गुलाब की तरह ,मुकुल दवे "चातक "


खिलते  है  उल्फत  में  तेरे रुखसार गुलाब  की तरह ,
उतरती    है    तिश्नगी    आज    शराब    की   तरह ,

मैं   तेरी    याद  में   यह   सोचकर   काँप  उठता  हूँ ,
पढ़  न  ले  तेरा  नाम  मेरे  चहेरे  पे किताब की तरह,

किस  तरह  याद  आ  के  तुम  मुझे आजमा  रही हो ,
जैसे  सचमुच  उतरतें  ख्वाब  मेरे  अजाब  की  तरह,

तुम  इतना  जुनूँ  न  दिखलाओं  की  पकड़ लूँ दामन ,
फिर  अगर  बहल  लूँ   गुद गुदा हो के आब  की तरह,

जाग उठती है फ़ितरते -फनकार, जब तुम झूमती हो ,
तुम  आ  जाओ  आग़ोशे-तसव्वुर में शबाब की तरह

मुकुल दवे "चातक "

रुखसार-गाल //तिश्नगी -प्यास//अजाब-गुनाह का ख्याल,
आब-बरसात //फ़ितरते -फनकार-कला की प्रकृति ,
आग़ोशे-तसव्वुर-कल्पना की  गोदमें



22 November 2015

तुम बिन जख्म भरा है ,मगर महकता लगता है ,मुकुल दवे "चातक"


तुम बिन जख्म  भरा  है , मगर  महकसा  लगता  है ,
सोया  है गम  फिर भी  वो  शराबका  नशा  लगता  है ,

दिलके  ख्वाब को  हम  बार  बार  सजाने  लगते   है ,
मसीहा बनके आये है वो, जिन्दगी आईना लगता है ,

शहर  जाके   देखो  अब   वह  आदमी में   सुकूँ   नहीं ,
झकझोरा आदमी बात उसने मोड़ दी, बेज़ुबाँ लगता है ,

आँधियाँ  में  भी  मुहब्बत   का   दीपक    जलता   है ,
 मजार आता है फूल चढ़ाने , मुहब्बत खुदा लगता है ,

सितम    भूलके   भी   हम    आपके   अब   हो  जाऐ ,
फिरभी    दिलके   घा  पे   मरहम    बयाँ   लगता   है ,

मुकुल दवे "चातक"
सुकूँ-चैन







18 November 2015

चंद सिक्के पेट के लिए हवामे उछाले कई किरदारमें ,मुकुल द्वे "चातक "


चंद   सिक्के   पेट के   लिए  हवामे उछाले कई  किरदारमें ,
छन्न    छन्न    छल्ली    दिल    हुआ    बेजुबाँ   बाजारमें ,

लूट     सड़को   पर    ऐसी    मची     कौन   यार -  दुश्मन ,
भीड़ में भी तनहा है  शहर कौन सी   मंज़िल की  रफ्तारमें ,

गिनते   गिनते   अँधेरा ,  रोते   रोते   कब   उजाला  हुआ  ,
साहिल पहुँचे  बैठने कश्तीमें,निकली उम्र ढूँढने पतवारमे ,

अहसास   था   मुझे   वजूद   मेरा   दिया   गुलाबमे  होगा ,
आज   दीखती   है   आँखों    की    चमक   तेरे   इजहारमें ,

कच्चे   बरतन   कब   तक   ढोया   करे  मायावी  नगरीमें ,
कातिल  भी  मै  हूँ  कितने  घा  दीये  कलम की तलवारमे ,

मुकुल द्वे "चातक "
साहिल -किनारा

16 November 2015

किवाड़ों पर उम्मिद से दस्तक लगाए हुए है ,मुकुल दवे "चातक"


किवाड़ों    पर    उम्मिद  से    दस्तक    लगाए    हुए    है ,
ढलती  हुई  शाम में  क्यूँ  मेरी  बंदिशों  आजमाए  हुए  है ,

बहुत  करीब  न  आओ  कमबख्त  सियासत का  भय   है ,
रहगुजर में      लिपटे    साए     कभी     पराए     हुए    है ,

खुद के पिंजरमे पिन्हाँ है सय्याद ढूँढते जिन्दगी निकली ,
भीतर के  परिन्दें के   पर   थिरथराते   समजाए   हुए   है ,

गुजर   गए   चाहत की   हदसे ,  पीके   शराब    आँखोंका ,
क्यों   गिला   करे  साकीसे,  मयकशी को  भुलाए  हुए  है ,

जब    जिस्म  ही   नहीं   खुद   अपना   परेशां   क्यों   हो ?
फिरभी    परिन्दें    उम्मिद से    घरौंदा    बनाए   हुए   है ,

मुकुल दवे "चातक"

बंदिशों-बंधनों //रहगुजर-रास्ता //पिन्हाँ-छुपा हुआ//
 पर -पांखो // मयकशी-शराब पीना

7 November 2015

जिस्म में फैली तेरी यादोंकी आगसे गुजर क्यों नहीं जाता ,मुकुल दवे "चातक"


जिस्म में  फैली  तेरी  यादोंकी  आगसे गुजर क्यों नहीं जाता ,
जलती   है  रूह  पिघलके  धुँए  में   बिखर   क्यों  नहीँ  जाता ,

में   एक   ही   धागा   तो   हूँ, वही रिश्तो को जोड़ता है सबको ,
बड़ी  मुश्किलसे   टूटता   है   फिरभी  सँवर क्यों   नहीँ  जाता ,

चुपकेसे   फूलोंकी  खुश्बू के  नशे  में  डू बकर   सोचना   मुझे ,
पथ्थर-ओ -सागर में नमी सी है ,मुझे छूकर क्यों  नहीँ जाता ,

उसकी    हथेलियों में    मेरे   नाम की   लकीरें    खींचीं    थी ,
यही   नामका   पोशीदा   मुकदर ,  ठहर   क्यों   नहीँ   जाता ,

जो     चहेरा    सोचा  था ,   वो    भीड़में  भी   पहचाना   गया ,
बातें है दिलकी लगी की ,रूह्से चहेरा अकसर क्यों नहीँ जाता ,

मुकुल दवे "चातक"
पथ्थर-ओ -सागर -पथ्थर का प्याला// पोशीदा-छुपा हुआ