मैं तेरे मैखानामें आया होता ,जाम पीलानेका दौर कुछ ओर होता ,
तु पीलाता मैं पीता तेरे हसीन नजारे चुरानेका दौर कुछ ओर होता ,
नकाब चहेरेसे तु उतार दे , ऐतबारकी दिवार हिलने लगी है ,
प्यार ही ऐतबारकी बुनियाद है ,उन्हें हिलानेका दौर कुछ ओर होता ,
शब हो या सहर , शमाए बुजाने से कोई फायदा नहीं
परवाने जलके खाक हो गये मुहब्बत निभानेका दौर कुछ ओर होता ,
बहुत कड़ा है सफर अपने रहनुमाको साथ लेके चलो ,
नशेमें हूँ मैं होश नहीं तुम्हे रंजिशें जतानेका दौर कुछ ओर होता ,
भाग किधर रहा है तू नंगे शहरमे जबाँ बेचनी होगी तुम्हें जमीरभी ,
हर रोज तिश्नगी होगी यहाँ तक़दीर आजमानेका दौर कुछ ओर होता
मुकुल दवे "चातक'
शब-रात / रहनुमा-मार्गदर्शक / तिश्नगी-प्यास