इक न इक दिन देंगे आप दस्तकें दर पे तरस की तरह ,
हम अश्क बन के गिरेगेँ आप की प्यास की लहर की तरह ,
जब सामने तू है पर्दे को चेहरे पे पड़ा रहने दे ,
उठेगा पर्दा निगाह होगी सँवरती सहर की तरह ,
मेरे वजूद के आसपास ये कौन है जो मिलता है ,
तू भी हयात है किताब सा आईना है समन्दर की तरह ,
आज सरेराह कोई चेहरा लगा के निकला, ढूँढ न सका में ,
खुद को पा न शका तुझे ढूँढता रहा द्स्त नगर की तरह ,
मिला न पता खुदा जाने आँखों में क्या फैला था दूर तक ,
कोई नक्शे पा न देखा बुला रहा जिसे खुदा के दर की तरह
मुकुल दवे "चातक "
द्स्त नगर-हाथ फैलाये हुए//हयात-जिंदगी//सहरसुबह
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