कोई अँधेरा नहीं यहाँ कोई उजाला नहीं हुआ ,
चारो ओर गहरा कोहरा सुबह का उतारा नहीं हुआ ,
कच्ची मिट्टी के जिस्म पे सरापा में चादर थी ,
जिन्दगी क्या ले गई फ़क़ीरोंसे, खुदा का नजारा नहीं हुआ ,
रात -दिन मोम बनकर प्यारके सांचे में पिघलता रहा ,
जब लहू जम गया प्यार के हुनर से गुजारा नहीं हुआ ,
पतवारों के साथ चलना लंबे पथ पर सूरज छला करें ,
कौन सी फिराक में था अँधेरा कभी सितारा नहीं हुआ ,
कभी तुम किसी मोड़ पे मिलोगें मुसाफिर होके ,
आँखों में चरागों का कारवाँ फिरभी रास्ते का इशारा नहीं हुआ ,
मुकुल दवे "चातक "
कोहरा-धुम्मस //सरापा-सर से पाँव तक