27 October 2015

हर एक चहेरा पहचाना हुआ, फिरभी अजनबी सा क्यूँ है,मुकुल दवे "चातक'


हर  एक  चहेरा  पहचाना  हुआ,  फिर भी  अजनबी सा   क्यूँ    है,?
शहर  की   दीवारों  के  पनाह  में ,  बेजारे  जिन्दगी सा   क्यूँ    है,?

आदमी  से  आदमी  महरूम   है , दिल  और जबाँ में   कुछ   और ,
हर एक परिन्दा जख्मी ,फिर भी  जिस्म में  तिश्नगी सा  क्यूँ  है,

क्या  ढूँढता  रहेता  है  सुबह शाम  मन्दिर, मस्जिद, गुरुध्वारे में ,
साकी समझ नहीं पाया ,पोशीदा जिन्दगीमे  मयकशी  सा क्यूँ है,

पहेले   सब   लोग    डुगडुगी    बजाने   आ   जाते   थे    मैदानमे ,
आज  हुन्नर में  सॉँप लगाये  है  गले , दुआमें  बेबसी सा  क्यूँ  है,

हर   कोई  यहाँ  अपना  निशाँ  और  पता   ढूँढता दिखाई  देते  है ,
निकालते है पावँ का काँटा तलवार से फिर भी दिल्ल्गी सा क्यूँ है

मुकुल दवे "चातक'
बेजारे-दुःखी //महरूम-वंचिंत//तिश्नगी-प्यास //पोशीदा-छुपा हुआ ,


24 October 2015

आँखों है समन्दर ,पलकों पर किनारा रखा हुआ है ,मुकुल दवे "चातक"


आँखों   है   समन्दर ,  पलकों पर   किनारा  रखा   हुआ   है ,
सैलाब में  डूबने नहीं दिया,चश्मेतर का इशारा रखा हुआ  है ,

यूँ  भले  मिल  गया  जिन्दगी की  राहमे  पसीना   मिट्टी  में ,
सहरा में  चलते ही   पानी   बचाकर,  गुजारा  रखा  हुआ  है ,

बेजलाए    चिरागने    दिलको    शायद   जलाके   रखा    है ,
,धूआँने    धूंधला  करके   कारवाँ का   साया  रखा   हुआ  है

आवाज   सिक्को की   सुनने,   भले   मुझे   टालते   रहे  हो ,
सवाल  निपटने  बजारमेँ   उछाल के  सँवारा  रखा  हुआ  है ,

दिलको  आईना  बनाके,  यूँ  ही   हम    सरेआम  घूमते  रहे ,
हर एक ने खुदका साया देखकर,आईना दुश्वारा रखा हुआ है,

मुकुल दवे "चातक"
चश्मेतर-अर्शु भरी आँखे /सैलाब- बाढ़ -

19 October 2015

देखते देखते वो कागजकी नावपे किनारा पार गया ,मुकुल दवे "चातक"


देखते   देखते    वो    कागजकी   नावपे  किनारा पार गया ,
वो  कौनसी  तकदीर  की  जिक्रमें  दिलमेँ  तीर  उतार गया ,

बने     गुनहगार     कदम     कदमपे    नसीबके    दिदारमें ,
यूँ  फ़रिश्ते की तरह यहॉँ कभी वहाँ सुबह शाम गुजार गया ,

कितना खुश था वो चेहरे से चहेरा बदल कर  शहर के धूपमें ,
वजूदके सबबमे तोडा आईना, बिखरता चहेरा सौ-बार गया ,

लोग    यहाँ    आकाशके    कद के    हिसाबसे     झुकते  ,हैं
आदमी  जो  पूरा  हो  वो  ढूँढनेमें,  खुद  पे  ही  ऐतबार गया ,

रहते  है  वो  काँचके  मकाँ  में, खुद  को  पथ्थर  बनाए  हुए ,
खुद की  तलाशमें  एक  बवण्डर-सा  बनाके  आरपार   गया ,

मुकुल दवे "चातक"



12 October 2015

तुम मेरे इश्क के अशआरकी पूजा हो जैसे,मुकुल दवे "चातक"


तुम  मेरे  इश्क के  अशआरकी   पूजा   हो   जैसे,
मिल   गये   हो   तुम   मुझे   मेरे   खुदा  हो जैसे,

चाह हो मेरी, दिलकी धड़कन हो,तकदीर  हो तुम,
तुम  मेरे  भगवन्तकी  हसरतकी  दुआ  हो  जैसे,

तुम    मेरी    सुबह   हो,   शाम   हो और  शब हो ,
तुमने   सदियोंसे   मेरी   तन्हाई   सुना  हो जैसे ,

तुम  आये  हो  मेरी  जिन्दगीमें  अनजान बनके ,
तेरी  मुहब्बतकी अदाओ  कहती है पता  हो जैसे,

मेरी     मौतको    ललकारा    तुमने     बन्दगीसे ,
मेरा   दामन   पकड़कर   मुझको   चुरा   हो जैसे,

तुम   मेरा   ऐतबार   हो,  आईना  हो, किताब हो ,
चहेरेपे    मेरा    नाम    सजाके   छुपा    हो  जैसे,

तुम  मेरी  हकीकत  हो,तमन्ना हो,वजूद हो तुम ,
खुदा   की   ख्वाहिशों  की  तुम  सजदा  हो  जैसे,

अशआर-शेर / शब -रात्रि /
मुकुल दवे "चातक"


10 October 2015

तेरा घरका पता ढूँढने शहरकी धूप में पैर जलाये हुए है ,मुकुल दवे "चातक "


तुम्हारे घरका  पता  ढूँढने  शहरकी  धूपमें  पैर  जलाये हुए  है ,
अपने  दिलकी  तरह  इन्सानने  बंध   दरवाजे  सजाये  हुए  है ,

न    मिलने    का    सबब   सोचके   हो  जाता  हूँ  कुछ  उदास ,
फिरभी   आनेके   इन्तजारमेँ   चौखटपे   आस  लगाये हुए  है ,

आइना  बनाया पथ्थरसे  बदलके  लिबास  आईना दिखाते  है ,
बड़े   सलीकेसे   जिन्दगीकी   किताब   पढ़ाके   रुलाये  हुए  है ,

मैं   अहसास   हूँ   तेरा   चाहे   आँख   खोलो  या नींदमें सो लो ,
चाहो  वफ़ा  करो  या जफ़ा  फिरभी मुझे दिलमें छुपाये  हुए  है ,

मैं   ढूँढता   रह   गया   कौनसा   जवाब  का सवाल  गलत  था ,
गुनाह से बढ़कर मिली सजा  लिखे  गये  हिसाब दिखाये हुए है ,


मुकुल दवे "चातक "

6 October 2015

खींची हुई घरकी दिवारें के बीच रास्ता निकलता है,मुकुल दवे "चातक"


खींची   हुई   घरकी   दिवारों के  बीच  रास्ता निकलता है,
उजालों के  सफर र्मे  कदम  बढ़ाने  रहनुमा  निकलता  है,

छूप  छूपके  चिलमनों में  चाहे  कितने भी  मुझे  सोचोगे ,
दिलके  अक्स  रूबरू  निकलते ही  आईना   निकलता  है ,

कौन   कहेता   है   चराग़ों के  धुऐं   का  मकाँ   नही होता ,
मयकशी  की   बन्दगी से  मन्दिरका  खुदा  निकलता  है,

बुलन्दीसे हर शख्सको आईना दिखाके शहरमें बेचता था ,
आईना अंधेको बेचनेके जुर्ममें, डरसे भागता निकलता है ,

"चातक"  खुद्की   बनाई   उल्जी  राहोंका   तमाशा  देख ,
हज़ारों साल सजा काटने के बाद  नया सबेरा निकलता है

मुकुल दवे "चातक"

रहनुमा -पथदर्शक // चिलमनों-पर्दा // अक्स-प्रतिबिंब

3 October 2015

चलते,संभलते ठोकर है हर डगर खुदा मेरे साथ है ,मुकुल दवे "चातक"


चलते,  संभलते  ठोकर  है  हर  डगर  खुदा  मेरे  साथ   है ,
हार के  बाद  फिर  बसाते  घोसला दस्ते-दुआ मेरे साथ है ,

साथ   चलते   चलते   राहमें  मेरा  हमराज  बिछड़   गया ,
शीशा-ए-दिलमें    उसकी   धड़कन   सदा   मेरे   साथ   है ,

मेरे  रग   रगकी  बंदिशमें  चाहतका  किसका   दमाम  है ,
पिघल जाता है मेरा दिल मोमकी तरहा धूआँ मेरे साथ  है ,

ऐसा क्यूँ लगता निग़ाहों पढ़कर मेरी तक़दीर सँवार  देगी
अरमान  है  मिल  जाओ  गले  आक़र  दुआ  मेरे साथ  है ,

आखिर   मेरे  मजारपे   आये ,  सजदा   करके  चले  गए ,
शम्मा  वो  प्यारकी  रौशन  करके  गये वफ़ा मेरे साथ  है ,

मुकुल दवे "चातक"

दस्ते-दुआ-दुआ का हाथ