हर एक चहेरा पहचाना हुआ, फिर भी अजनबी सा क्यूँ है,?
शहर की दीवारों के पनाह में , बेजारे जिन्दगी सा क्यूँ है,?
आदमी से आदमी महरूम है , दिल और जबाँ में कुछ और ,
हर एक परिन्दा जख्मी ,फिर भी जिस्म में तिश्नगी सा क्यूँ है,
क्या ढूँढता रहेता है सुबह शाम मन्दिर, मस्जिद, गुरुध्वारे में ,
साकी समझ नहीं पाया ,पोशीदा जिन्दगीमे मयकशी सा क्यूँ है,
पहेले सब लोग डुगडुगी बजाने आ जाते थे मैदानमे ,
आज हुन्नर में सॉँप लगाये है गले , दुआमें बेबसी सा क्यूँ है,
हर कोई यहाँ अपना निशाँ और पता ढूँढता दिखाई देते है ,
निकालते है पावँ का काँटा तलवार से फिर भी दिल्ल्गी सा क्यूँ है
मुकुल दवे "चातक'
बेजारे-दुःखी //महरूम-वंचिंत//तिश्नगी-प्यास //पोशीदा-छुपा हुआ ,