2 December 2015

रोशनी का न धुऍ का पता नहीं, जलाया कुछ और है ,मुकुल द्वे "चातक "


रोशनी   का  न  धुऍ  का  पता  नहीं, जलाया कुछ और  है ,
चिराग हों जब   दिलमें  फिर   बुजाया   कुछ    और    है ,

ऊँचे    महलसे    उसने  झोंपड़ी    का    कद  देख   लिया ,
हाथों की लकीरों ने जज्बात खरीद के जुटाया कुछ और है ,

मेरी    आँखों  में    ख़ामोशी   से    तुम    ढूँढते   हो   क्या ,
जी    भर के  मेरे   अश्कोमें,    छिपाया   कुछ   और     है ,

जिन्दगी  की   आगोश  में   कोई   नहीं   मिलता   होशमें ,
पाले   हुए   सारे   भरम   बसाके   दिखाया   कुछ  और  है ,

मिट्टी  का  खिलौना  बना  कर  कलाकार ने    तलाशा  है ,
तोडा  कई  बार उसने  फिर  बनाके  मिटाया कुछ और  है ,

मुकुल द्वे "चातक "

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