यह कैसा दौर है उनके दिल में अब वो तल्खी नहीँ है ,
रिश्ता पुराना है पहेले जैसी वो बात आज भी नहीँ है ,
साकी तेरे मयक़दा में तुम जिसे मयकशी कहते हो ,
सागर जैसी उनकी निगाह आगे वो तिश्नगी नहीँ है ,
ख्वाब जागती आँखों को दिखाने वाला जिस तरह मिलते है ,
पहले कभी मुहब्बत की थी वो आज दिल्ल्गी नहीँ है ,
मेरी किस्मत में जीत भी हूबहू हार की तरह हुई ,
मगर रात दिन, शामो सहर, हर धडी अजनबी नहीँ है ,
हौसला इतना है की तु कहे या न कहे मर्जी है तेरी ,
एक हकीकत बयाँ है पहेले जैसी शर्मिन्दगी नहीँ है ,
आज मिट रहा हूँ उसी तरह,जिस तरह मिटा रही थी,
सिलसिला अजीब है वो तमन्ना,मुराद की जिन्दगी नहीँ है ,
हम खुद को रुसवा उनकी मुहब्बत से नही कर पाए ,
वार करते रहे वो फिरभी उनकी बंदगी थमी नहीँ है ,
मुकुल द्वे "चातक"
तल्खी-कड़वाहट//मयकशी-शराब पीना//तिश्नगी-प्यास ,
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