तुम बिन जख्म भरा है , मगर महकसा लगता है ,
सोया है गम फिर भी वो शराबका नशा लगता है ,
दिलके ख्वाब को हम बार बार सजाने लगते है ,
मसीहा बनके आये है वो, जिन्दगी आईना लगता है ,
शहर जाके देखो अब वह आदमी में सुकूँ नहीं ,
झकझोरा आदमी बात उसने मोड़ दी, बेज़ुबाँ लगता है ,
आँधियाँ में भी मुहब्बत का दीपक जलता है ,
मजार आता है फूल चढ़ाने , मुहब्बत खुदा लगता है ,
सितम भूलके भी हम आपके अब हो जाऐ ,
फिरभी दिलके घा पे मरहम बयाँ लगता है ,
मुकुल दवे "चातक"
सुकूँ-चैन
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