किवाड़ों पर उम्मिद से दस्तक लगाए हुए है ,
ढलती हुई शाम में क्यूँ मेरी बंदिशों आजमाए हुए है ,
बहुत करीब न आओ कमबख्त सियासत का भय है ,
रहगुजर में लिपटे साए कभी पराए हुए है ,
खुद के पिंजरमे पिन्हाँ है सय्याद ढूँढते जिन्दगी निकली ,
भीतर के परिन्दें के पर थिरथराते समजाए हुए है ,
गुजर गए चाहत की हदसे , पीके शराब आँखोंका ,
क्यों गिला करे साकीसे, मयकशी को भुलाए हुए है ,
जब जिस्म ही नहीं खुद अपना परेशां क्यों हो ?
फिरभी परिन्दें उम्मिद से घरौंदा बनाए हुए है ,
मुकुल दवे "चातक"
बंदिशों-बंधनों //रहगुजर-रास्ता //पिन्हाँ-छुपा हुआ//
पर -पांखो // मयकशी-शराब पीना
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