16 November 2015

किवाड़ों पर उम्मिद से दस्तक लगाए हुए है ,मुकुल दवे "चातक"


किवाड़ों    पर    उम्मिद  से    दस्तक    लगाए    हुए    है ,
ढलती  हुई  शाम में  क्यूँ  मेरी  बंदिशों  आजमाए  हुए  है ,

बहुत  करीब  न  आओ  कमबख्त  सियासत का  भय   है ,
रहगुजर में      लिपटे    साए     कभी     पराए     हुए    है ,

खुद के पिंजरमे पिन्हाँ है सय्याद ढूँढते जिन्दगी निकली ,
भीतर के  परिन्दें के   पर   थिरथराते   समजाए   हुए   है ,

गुजर   गए   चाहत की   हदसे ,  पीके   शराब    आँखोंका ,
क्यों   गिला   करे  साकीसे,  मयकशी को  भुलाए  हुए  है ,

जब    जिस्म  ही   नहीं   खुद   अपना   परेशां   क्यों   हो ?
फिरभी    परिन्दें    उम्मिद से    घरौंदा    बनाए   हुए   है ,

मुकुल दवे "चातक"

बंदिशों-बंधनों //रहगुजर-रास्ता //पिन्हाँ-छुपा हुआ//
 पर -पांखो // मयकशी-शराब पीना

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