7 November 2015

जिस्म में फैली तेरी यादोंकी आगसे गुजर क्यों नहीं जाता ,मुकुल दवे "चातक"


जिस्म में  फैली  तेरी  यादोंकी  आगसे गुजर क्यों नहीं जाता ,
जलती   है  रूह  पिघलके  धुँए  में   बिखर   क्यों  नहीँ  जाता ,

में   एक   ही   धागा   तो   हूँ, वही रिश्तो को जोड़ता है सबको ,
बड़ी  मुश्किलसे   टूटता   है   फिरभी  सँवर क्यों   नहीँ  जाता ,

चुपकेसे   फूलोंकी  खुश्बू के  नशे  में  डू बकर   सोचना   मुझे ,
पथ्थर-ओ -सागर में नमी सी है ,मुझे छूकर क्यों  नहीँ जाता ,

उसकी    हथेलियों में    मेरे   नाम की   लकीरें    खींचीं    थी ,
यही   नामका   पोशीदा   मुकदर ,  ठहर   क्यों   नहीँ   जाता ,

जो     चहेरा    सोचा  था ,   वो    भीड़में  भी   पहचाना   गया ,
बातें है दिलकी लगी की ,रूह्से चहेरा अकसर क्यों नहीँ जाता ,

मुकुल दवे "चातक"
पथ्थर-ओ -सागर -पथ्थर का प्याला// पोशीदा-छुपा हुआ




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