जिस्म में फैली तेरी यादोंकी आगसे गुजर क्यों नहीं जाता ,
जलती है रूह पिघलके धुँए में बिखर क्यों नहीँ जाता ,
में एक ही धागा तो हूँ, वही रिश्तो को जोड़ता है सबको ,
बड़ी मुश्किलसे टूटता है फिरभी सँवर क्यों नहीँ जाता ,
चुपकेसे फूलोंकी खुश्बू के नशे में डू बकर सोचना मुझे ,
पथ्थर-ओ -सागर में नमी सी है ,मुझे छूकर क्यों नहीँ जाता ,
उसकी हथेलियों में मेरे नाम की लकीरें खींचीं थी ,
यही नामका पोशीदा मुकदर , ठहर क्यों नहीँ जाता ,
जो चहेरा सोचा था , वो भीड़में भी पहचाना गया ,
बातें है दिलकी लगी की ,रूह्से चहेरा अकसर क्यों नहीँ जाता ,
मुकुल दवे "चातक"
पथ्थर-ओ -सागर -पथ्थर का प्याला// पोशीदा-छुपा हुआ
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