27 October 2015

हर एक चहेरा पहचाना हुआ, फिरभी अजनबी सा क्यूँ है,मुकुल दवे "चातक'


हर  एक  चहेरा  पहचाना  हुआ,  फिर भी  अजनबी सा   क्यूँ    है,?
शहर  की   दीवारों  के  पनाह  में ,  बेजारे  जिन्दगी सा   क्यूँ    है,?

आदमी  से  आदमी  महरूम   है , दिल  और जबाँ में   कुछ   और ,
हर एक परिन्दा जख्मी ,फिर भी  जिस्म में  तिश्नगी सा  क्यूँ  है,

क्या  ढूँढता  रहेता  है  सुबह शाम  मन्दिर, मस्जिद, गुरुध्वारे में ,
साकी समझ नहीं पाया ,पोशीदा जिन्दगीमे  मयकशी  सा क्यूँ है,

पहेले   सब   लोग    डुगडुगी    बजाने   आ   जाते   थे    मैदानमे ,
आज  हुन्नर में  सॉँप लगाये  है  गले , दुआमें  बेबसी सा  क्यूँ  है,

हर   कोई  यहाँ  अपना  निशाँ  और  पता   ढूँढता दिखाई  देते  है ,
निकालते है पावँ का काँटा तलवार से फिर भी दिल्ल्गी सा क्यूँ है

मुकुल दवे "चातक'
बेजारे-दुःखी //महरूम-वंचिंत//तिश्नगी-प्यास //पोशीदा-छुपा हुआ ,


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