आँखों है समन्दर , पलकों पर किनारा रखा हुआ है ,
सैलाब में डूबने नहीं दिया,चश्मेतर का इशारा रखा हुआ है ,
यूँ भले मिल गया जिन्दगी की राहमे पसीना मिट्टी में ,
सहरा में चलते ही पानी बचाकर, गुजारा रखा हुआ है ,
बेजलाए चिरागने दिलको शायद जलाके रखा है ,
,धूआँने धूंधला करके कारवाँ का साया रखा हुआ है
आवाज सिक्को की सुनने, भले मुझे टालते रहे हो ,
सवाल निपटने बजारमेँ उछाल के सँवारा रखा हुआ है ,
दिलको आईना बनाके, यूँ ही हम सरेआम घूमते रहे ,
हर एक ने खुदका साया देखकर,आईना दुश्वारा रखा हुआ है,
मुकुल दवे "चातक"
चश्मेतर-अर्शु भरी आँखे /सैलाब- बाढ़ -
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