19 October 2015

देखते देखते वो कागजकी नावपे किनारा पार गया ,मुकुल दवे "चातक"


देखते   देखते    वो    कागजकी   नावपे  किनारा पार गया ,
वो  कौनसी  तकदीर  की  जिक्रमें  दिलमेँ  तीर  उतार गया ,

बने     गुनहगार     कदम     कदमपे    नसीबके    दिदारमें ,
यूँ  फ़रिश्ते की तरह यहॉँ कभी वहाँ सुबह शाम गुजार गया ,

कितना खुश था वो चेहरे से चहेरा बदल कर  शहर के धूपमें ,
वजूदके सबबमे तोडा आईना, बिखरता चहेरा सौ-बार गया ,

लोग    यहाँ    आकाशके    कद के    हिसाबसे     झुकते  ,हैं
आदमी  जो  पूरा  हो  वो  ढूँढनेमें,  खुद  पे  ही  ऐतबार गया ,

रहते  है  वो  काँचके  मकाँ  में, खुद  को  पथ्थर  बनाए  हुए ,
खुद की  तलाशमें  एक  बवण्डर-सा  बनाके  आरपार   गया ,

मुकुल दवे "चातक"



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