देखते देखते वो कागजकी नावपे किनारा पार गया ,
वो कौनसी तकदीर की जिक्रमें दिलमेँ तीर उतार गया ,
बने गुनहगार कदम कदमपे नसीबके दिदारमें ,
यूँ फ़रिश्ते की तरह यहॉँ कभी वहाँ सुबह शाम गुजार गया ,
कितना खुश था वो चेहरे से चहेरा बदल कर शहर के धूपमें ,
वजूदके सबबमे तोडा आईना, बिखरता चहेरा सौ-बार गया ,
लोग यहाँ आकाशके कद के हिसाबसे झुकते ,हैं
आदमी जो पूरा हो वो ढूँढनेमें, खुद पे ही ऐतबार गया ,
रहते है वो काँचके मकाँ में, खुद को पथ्थर बनाए हुए ,
खुद की तलाशमें एक बवण्डर-सा बनाके आरपार गया ,
मुकुल दवे "चातक"
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