6 October 2015

खींची हुई घरकी दिवारें के बीच रास्ता निकलता है,मुकुल दवे "चातक"


खींची   हुई   घरकी   दिवारों के  बीच  रास्ता निकलता है,
उजालों के  सफर र्मे  कदम  बढ़ाने  रहनुमा  निकलता  है,

छूप  छूपके  चिलमनों में  चाहे  कितने भी  मुझे  सोचोगे ,
दिलके  अक्स  रूबरू  निकलते ही  आईना   निकलता  है ,

कौन   कहेता   है   चराग़ों के  धुऐं   का  मकाँ   नही होता ,
मयकशी  की   बन्दगी से  मन्दिरका  खुदा  निकलता  है,

बुलन्दीसे हर शख्सको आईना दिखाके शहरमें बेचता था ,
आईना अंधेको बेचनेके जुर्ममें, डरसे भागता निकलता है ,

"चातक"  खुद्की   बनाई   उल्जी  राहोंका   तमाशा  देख ,
हज़ारों साल सजा काटने के बाद  नया सबेरा निकलता है

मुकुल दवे "चातक"

रहनुमा -पथदर्शक // चिलमनों-पर्दा // अक्स-प्रतिबिंब

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