खींची हुई घरकी दिवारों के बीच रास्ता निकलता है,
उजालों के सफर र्मे कदम बढ़ाने रहनुमा निकलता है,
छूप छूपके चिलमनों में चाहे कितने भी मुझे सोचोगे ,
दिलके अक्स रूबरू निकलते ही आईना निकलता है ,
कौन कहेता है चराग़ों के धुऐं का मकाँ नही होता ,
मयकशी की बन्दगी से मन्दिरका खुदा निकलता है,
बुलन्दीसे हर शख्सको आईना दिखाके शहरमें बेचता था ,
आईना अंधेको बेचनेके जुर्ममें, डरसे भागता निकलता है ,
"चातक" खुद्की बनाई उल्जी राहोंका तमाशा देख ,
हज़ारों साल सजा काटने के बाद नया सबेरा निकलता है
मुकुल दवे "चातक"
रहनुमा -पथदर्शक // चिलमनों-पर्दा // अक्स-प्रतिबिंब
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