पी गए मदिरा पीते पीते आदमी फ़साना हो जाता है ,
इंसाको नशेमें बदलते देखा नहीं, बुतखाना हो जाता है ,
रहम है खुदाका मयके दमसे पिघलती है बोझल रातें ,
आदमी ही आदमी नहीँ रहता हकीकतमें आईना हो जाता है ,
शाम ढलते ही पीते है चाहतका एक मीठा दर्द जगाने ,
जब कोई इश्कका दम तोड़ता है मयका पैमाना हो जाता है ,
तुमने अगर जुल्फ लहराई होती सावनका महीना आ जाता ,
पी लेते है इस बहाने , नशेमें जीनेका बहाना हो जाता है ,
अगर तुमने अपनी सुरूर आँखोंसे सुराही छलकाई होती ,
इश बहाने समां बांध लेते है दिया दर्द बेगाना हो जाता है
मुकुल दवे "चातक"
फ़साना-कहानी/बुतखाना-मंदिर/ मय-शराब/पैमाना-प्याला ,
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