हर मोड़ पर अजनबी शख्स है ,इन्सान का क्या होगा ,
वो अपने थे जो अन्जान बने ,एतबार का क्या होगा ,
चंद लम्होंके लिए शाखसे पंछी उडा था ही ! ,
हिस्सेमें पेड़का वजूद रहा नहीं , मक़ाम का क्या होगा ,
अश्क सिमटके चहेरेकी मुस्कानमें ढल रहे हैं ,
जैसे शबनम हो रोशन गुलपे , माह्ताब का क्या होगा ,
सुलगती हर शिकवा खामोश बन के रह गई हैं ,
जिगरमें उभर गई खलिशें , अन्जाम का क्या होगा ,
शम्माके साथ परिन्देके सिलसिले यूँ ही चलते ,
शम्मा जलके हुई है शोला , इजहार का क्या होगा ,
मुकुल दवे "चातक"
माह्ताब-चांद
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