5 May 2015

आईना आदमीका अक्स देखकर बदलासा क्यों है ,मुकुल दवे "चातक"


आईना  आदमीका अकस   देखकर  बदलासा  क्यों  है ,
आदमी आदमी  के  साथ  है  फिरभी तन्हासा  क्यों  है ,

जिक्र  उनका  निकला  फिर  छाई  उदासी  महेफिलमें ,
अर्सा हुआ जख्म भरे , निशान  दर्दका जरासा  क्यों  है ,

डूबकर आँखों में  कागजकी कस्तीमें सफर कर  रहे  है ,
झील  जैसी  आँखोंमें   पानी  ठहरा  ठहरासा   क्यों   है ,

अधूरा अफ़साना  है  मगर  मायूस  भी  करती  नहीं  है ,
फिरभी चेहरे पे बिखरी लट के पीछे हैरॉ हैरॉसा क्यों  है ,

दुनियासे  क्या  शिकायतें , गिला  लोगोसे    क्या  करे ,
करनी   है   तुम्हें   ऊँची    दीवारे   दरवाजासा  क्यों  है ,

मुकुल दवे "चातक" अकस-प्रतिबिंब

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