आईना आदमीका अकस देखकर बदलासा क्यों है ,
आदमी आदमी के साथ है फिरभी तन्हासा क्यों है ,
जिक्र उनका निकला फिर छाई उदासी महेफिलमें ,
अर्सा हुआ जख्म भरे , निशान दर्दका जरासा क्यों है ,
डूबकर आँखों में कागजकी कस्तीमें सफर कर रहे है ,
झील जैसी आँखोंमें पानी ठहरा ठहरासा क्यों है ,
अधूरा अफ़साना है मगर मायूस भी करती नहीं है ,
फिरभी चेहरे पे बिखरी लट के पीछे हैरॉ हैरॉसा क्यों है ,
दुनियासे क्या शिकायतें , गिला लोगोसे क्या करे ,
करनी है तुम्हें ऊँची दीवारे दरवाजासा क्यों है ,
मुकुल दवे "चातक" अकस-प्रतिबिंब
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