29 April 2015

मैं तेरे मैखानामे आया होता ,जाम पीलानेका दौर कुछ ओर होता ,मुकुल दवे "चातक'


मैं  तेरे  मैखानामें  आया होता ,जाम पीलानेका  दौर कुछ  ओर  होता ,
तु  पीलाता  मैं पीता तेरे  हसीन नजारे चुरानेका  दौर कुछ ओर  होता ,

नकाब   चहेरेसे   तु    उतार  दे ,  ऐतबारकी  दिवार   हिलने  लगी   है ,
प्यार ही ऐतबारकी  बुनियाद  है ,उन्हें हिलानेका दौर कुछ ओर  होता ,

शब    हो    या    सहर ,   शमाए    बुजाने    से    कोई    फायदा   नहीं
परवाने जलके खाक हो गये  मुहब्बत निभानेका  दौर कुछ ओर होता ,

बहुत    कड़ा    है    सफर    अपने    रहनुमाको    साथ    लेके    चलो ,
नशेमें  हूँ  मैं  होश  नहीं  तुम्हे  रंजिशें जतानेका  दौर कुछ  ओर होता ,

भाग  किधर  रहा  है तू  नंगे शहरमे जबाँ  बेचनी होगी तुम्हें जमीरभी ,
हर  रोज तिश्नगी होगी यहाँ तक़दीर आजमानेका दौर कुछ ओर होता

मुकुल दवे "चातक'
शब-रात /  रहनुमा-मार्गदर्शक / तिश्नगी-प्यास

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