चौराह् पे कभी कभी नहीं चाहनेसे वो मिल जाते है ,
कैसे कैसे मुकामपे मिलके वो मिलाते जाते है ,
भूली हुई गुजरी यादें फिरसे वो जहनमें लाते है ,
सुलगते अरमानको उल्फतमें जताते जाते है ,
संभलके रखे थे हमने कभी कदम जमीनपे ,
क्यूँ हमे चलते चलते युँ हीं गिराते जाते है ,
युँ हीं लोग राहे-सफरमें अपने चलते चलते
दिल लगी चिरागको हवा दे के जलाते जाते है
बादल है हम जिसका कोई नाम नहीं होता ,
फिर भी वो बेरुखीसे दिलपे दस्तक बनाते जाते है
मुकुल दवे "चातक"
राहे-सफरमे -यात्रा की राह
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