लिपटी हुई तितलियाँ गुलसे तअल्लुक़ करती है ,
गुलकी पोशीदा-महोब्बतको ,इस कदर रुसवाईयाँ न करो ,
युँ ही प्यार करनेवाले फस्ले-गुलसे महोब्बत किया करते है ,
गुलशनमें फैली लताफत हवा, इस कदर लुटाया न करो ,
माना मैने ज़माने ने दिये जख्मोसे सताये हुए , है ,
जो अहसासे जख्मे-दर्द है, इस कदर बढ़ाया न करो ,
चहका करे परिन्दे खुदकी आजादीके आस्मानमें ,
वफाका नाम लेके शमाको, इस कदर जलाया न करो ,
सितमरवॉ साकी प्यासी नजरोसे जामको क्यूँ टकराते है ,
बेताबी बहकी हुई प्यासको ,इस कदर बढ़ाया न करो,
मै ने माना उल्फत एक जलता हुआ चिराग है ,
युँ ही बेवफाका नाम लेके, इस कदर उछाला न करो ,
नवाजिश है की दिलो-जानसे महोब्बत किया करते है ,
उल्फ़ते-हयात नाम है खुदाका,इस कदर दामन छुड़ाया न करो ,
ऐसे भी महोब्बतमें सिलसिला-ऐ-ख्वाहिश कम होती है,
मिले न मिले दुनिया फानी है ,इस कदर फासला बढ़ाया न करो,
मुकुल दवे "चातक"
पोशीदा-छानी// फस्ले-गुलसे-वसंतऋतु// लताफत-माधुर्य//
//उल्फ़ते-हयात-प्रेमका जीवन//नवाजिश-कृपा
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