20 March 2015

कहाँ फिकर धूँधली धूँआकी वो अक्सर भीतर मिलता है ,मुकुल दवे "चातक"


कहाँ  फिकर  धूँधली  धूँआका वो अक्सर भीतर  मिलता  है ,
ढूँढ़ता रहेता हूँ कहाँ कहाँ वो आजमा कर  भीतर  मिलता  है ,

कभी   ख्वाबो   में  आ   जाए  खुद  यक़ीनन  शब   ही  सही ,
ज्यादा जानता मुझको मेरे से उसका डगर भीतर मिलता है

उसको   मैं   सजदे   में   दस्ते-दुआ   उठाके   मांगता   नहीँ ,
साँसकी  रवानी  में  हर  लम्हा  उभर  कर भीतर  मिलता है ,

वो   मन्दिर   मस्जिद   गुरूદ્વાર  चर्च  में  जाता  कभी  नहीँ ,
आज   कल  पयगामे  अजूबा   बनकर  भीतर   मिलता   है ,

शौके-सफर   का   सलीका   तुं   खुद   साँसो   में   बसा   ले ,
ये  आँसु  फुरकत  आहे  हसरत सजाकर भीतर  मिलता  है

मुकुल दवे "चातक"
दस्ते-दुआ-दुआ का हाथ , फुरकत-विरह







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