कहाँ फिकर धूँधली धूँआका वो अक्सर भीतर मिलता है ,
ढूँढ़ता रहेता हूँ कहाँ कहाँ वो आजमा कर भीतर मिलता है ,
कभी ख्वाबो में आ जाए खुद यक़ीनन शब ही सही ,
ज्यादा जानता मुझको मेरे से उसका डगर भीतर मिलता है
उसको मैं सजदे में दस्ते-दुआ उठाके मांगता नहीँ ,
साँसकी रवानी में हर लम्हा उभर कर भीतर मिलता है ,
वो मन्दिर मस्जिद गुरूદ્વાર चर्च में जाता कभी नहीँ ,
आज कल पयगामे अजूबा बनकर भीतर मिलता है ,
शौके-सफर का सलीका तुं खुद साँसो में बसा ले ,
ये आँसु फुरकत आहे हसरत सजाकर भीतर मिलता है
मुकुल दवे "चातक"
दस्ते-दुआ-दुआ का हाथ , फुरकत-विरह
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