छलकती है जो आँख निगाहो से शराब की ,
निगाहे-जाम में घोल रही है कातिले-शबाब की ,
लाख कोशिश से हुश्न पे पर्दा कर न शके ,
गुजरती है जहाँ से लगती है आग आफताब की ,
दागे-मुहब्बत का दिलमें है आलम इस तरह ,
छलकती है महकती कैफी साँसे , करे न कोई अजाब की ,
उलझे उलझे जज्बात है तु बस जलाना न छोड़ ,
ईश्क ख़ुदा है आजमाना न छोड़ , ताब है महताब की ,
जुस्तजू-हुश्न का जिक्र क्या , तड़प के रूह रह गई ,
जिंदगी में आई वो,महकती खुशबू कैद कर गई गुलाबकी
मुकुल द्वे "चातक "
शबाब-हुश्न //आफताब -सूर्य//अजाब-गुनाह का ख्याल ,
ताब-तेज/नूर //महताब-चाँद //
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