9 February 2016

छलकती है जो आँख निगाहो से शराब की ,मुकुल द्वे "चातक "


छलकती    है    जो     आँख     निगाहो    से   शराब    की ,
निगाहे-जाम    में   घोल    रही    है    कातिले-शबाब   की ,

लाख     कोशिश    से    हुश्न    पे    पर्दा   कर    न    शके ,
गुजरती   है   जहाँ   से   लगती   है   आग   आफताब  की ,

दागे-मुहब्बत   का    दिलमें     है     आलम     इस   तरह ,
छलकती है महकती कैफी  साँसे , करे न कोई अजाब की ,

उलझे   उलझे   जज्बात   है   तु   बस   जलाना  न   छोड़ ,
ईश्क  ख़ुदा  है आजमाना  न  छोड़ , ताब  है  महताब  की ,

जुस्तजू-हुश्न  का   जिक्र   क्या , तड़प  के  रूह  रह   गई ,
जिंदगी में आई वो,महकती खुशबू कैद कर गई गुलाबकी

मुकुल द्वे "चातक "

शबाब-हुश्न //आफताब -सूर्य//अजाब-गुनाह का ख्याल ,
ताब-तेज/नूर //महताब-चाँद //

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