8 February 2016

इबादत और मेरी मुराद के दरमियाँ खुदा का चेहरा किताब सी रही ,मुकुल द्वे "चातक "

इबादत  और  मेरी  मुराद  के  दरमियाँ  खुदा का  चेहरा किताब  सी  रही ,
लोंग  जो  मिले  मुझसा  रहा , करम  में  ढूँढा  खुदी  से  रोशनी  सी   रही ,

क्या   कहूँ   शहर  के   हर   आदमी   गूँगों  की  तरह  कुछ  नहीं    कहता ,
हैरत    है    हर   शख्स   की   आँखो   में  सराबों  की  धनक रची सी  रही ,

क्या  तमाशा है  शीशे की  इमारत में  हर  शख्स  शीशे  की  तरह   मिला ,
अक्सर  टूटने  के  बहाने  बहुत , हर  जुल्म  में  जमीनें  सजा  देती   रही ,

कहर  में  सुलगता  आदमी   मशाल  की  तरह  बस्तियों में  घूमता  रहा ,
तीरगी में जलाके चल दिया ,शहर में चिरागों के धूआँ की जिंदगी सी रही,

बस  कोई  मसीहा  लौट  आये , ये  आसके  दिये  चौखट पे जलाके    रखे ,
कौन कातिल किसका सब के हाथ में खंजर,  इन्तहा की तिश्नगी सी रही

मुकुल द्वे "चातक "

इबादत-पूजा//करम -दया//सराबों-मृगतृष्णा//कहर-प्रकोप//
इन्तहा-अंत//तिश्नगी-प्यास//तीरगी-अंधकार ,

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