सुबह का सूरज के चेहरा की चमकती रोशनी से उभरने दे मुझे ,
अँधेरा बहुत था मगर हुनर से सुबह का सुनेहरी रंग भरने दे मुझे ,
आज ऐसा क्या है की तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे ,
तेरी खन खन ,चूड़ियाँ की आवाज चुराके सराबों में बिखरने दे मुझे ,
मायुस तुम ना होना, हँसी ख़ुशी से बिछड़ना है बिछड़ जाना ,
वक्त की शाम हो जाये उसके पहले तेरी आँखों में उतरने दे मुझे ,
मुसाफिर हूँ फिरभी न जाने क्यूँ लगता है की जिंदगी थम गई हो ,
ढूढता फिरता रहँता हूँ खुदा की छबि में फिरभी पुकारने दे मुझे ,
कैसा दौर है जहर पी चूका हूँ फिरभी जिंदगी की दुआ में तेरी असर हो ,
कहाँ था तुझे दूर जा के ,दुआएँ मुझे न दो,सजाओं में गुजरने दे मुझे
मुकुल द्वे "चातक "
सराबों-मृगतृष्णा
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